Monday, May 16, 2011

सफर

_सफ़र_

राह पथरीली और दूर है मकाम मेरा
मैं हू तनहा मगर दोस्त ये जहाँ मेरा...

साथ देने मेरा कोई भी नही इस सफ़र में
आईना देखके बढ़ता है हौसला मेरा...
मैं हू तनहा...

उनके जो अश्क बहे हमसे यूँ जुदा होके
बस तबस्सुम में छुपाता हैं दिलरुबा मेरा...
मैं हू तनहा...

ये कहानी तेरी तूनेही क्यूँ ख़त्म कर दी
देखले अब शुरू हुआ है सिलसिला मेरा...
मैं हू तनहा...

वो चूड़ियों की खनक मैने जब सुनी तो लगा,
या है डोली तेरी या उठा है जनाज़ा मेरा...
मैं हू तनहा...

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